Poems

लड़ाई, खुद से खुद की

माँ बाप से लड़ना है।
कहना है,
माना बीज हूँ मैं इस गर्भ का
सींच हूँ तमाम त्याग की,
जीवन दिया है आपने
एहसान है बहुत,
पर उसे जीने की आज़ादी भी दे।

समाज से लड़ना हैं।
माना अंश हूँ मैं तेरा
तेरे इस यम नियम के यज्ञ में
एक आहुती ही तो हूँ ?
संरचना दी है तूने
उपकार हैं बहुत
पर पुराने ढर्रों में ना बाँध
नए तरीको से चलने के रास्ते भी दे।

लड़ रहे हैं, थोड़ा थक भी गएँ है
विश्राम करेंगे, पर चलते रहेंगे
क्योकिं
सबसे लम्बी, सबसे कठिन
लड़ाई तो अभी बाकी है,
खुद से खुद की।


आज़ादी मिल भी जाए, तो जीया कैसे जाए ?
जीवन जो मिला हैं, वो कैसे व्यर्थ न जाए ?
ना बंधे समाज से,
तो क्या खुद से आज़ाद हैं हम ?
अपने हिस्से का प्यार बटोरने
के लिए हदें बनाते हैं हम
पर फिर क्या उन्हीं हदों में
कैद हो कर नहीं रह जाते हैं हम ?


सिखाता समाज है बांधना
तो सीख जाते है हम
पर उस सीख से, क्या वापस लौट पाते हैं हम ?

नए ढर्रें तो हम बनाये
पर कही इनमे भी ना बंध जाएँ
ऐसा क्या करें जो
खुद को, थोड़ा और समझ जाए ?

हिम्मत करके इन सवालों के जवाब ढूढ़ने निकलते हैं
तो राह में मिल जाते हैं और सवाल
जवाबो का मोड़ तो कभी
आता ही नही।

तो रुक कर सोचे इन सवालों पे
या चलते रहे
खोज में, जवाबो के ?


जी! आपसे पूछ रहे है, जनाब !
Friend, Mentor, Fellow, Traveler ,
अगर मिलें हों कुछ जवाब, हल या नज़रिये,
तो आएं, बैठें, ठहरें,
इन उलझनों को, थोड़ा सुलझा तो दें !

खेर छोड़ें !
चर्चा तो बहुत है करने को
कभी चाय पर,
तो कभी अकेलेपन की, पागलपन से।


बाद में करेंगे इस चर्चा को
फिलहाल जो बात शुरू की थी वो यह,
की लड़ाई बाकी है अभी
सबसे लम्बी, सबसे कठिन,
यह लड़ाई,
गीता का गीत है,
कृष्ण की सीख है,
ज्ञान की, कर्म की,
पुरुषार्थ की, स्वधर्म की,
सबसे लम्बी, सबसे कठिन
यह लड़ाई हैं,
खुद से खुद की।

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